ठिकाना आदिवास
Dynasty :- SOLANKI
CLAN:- BHOJAWAT
VILLAGE:- ADIWAS
HINDI NAME :- आदिवास
Present head-
The Panarwa thikana was located in the Bhomat region in the former state of Mewar, in present-day Rajasthan. The capital of the thikana was in the village of Manpur.The territory of Panarwa was extensive until the 1700s, from Jura in the west to Pai in the east, gradually reducing in size
as various smaller thikanas spun off its territory. The thikanas of
Ogna,
Adiwas,
Umariya,
Oda
And others all claim Panarwa as their origin.
At the time of accession to India in the 1949, Panarwa was bordered by the Jura thikanaand to the west and northwest, Oghna thikanato the east and northeast, the Idar State to the south.As of 1903, there were 60 villages in the thikana, and boasted two jagirs - Ora and Adiwas.
The thikana was founded by Thakur depal ji solanki
The where abouts of the Adivas have been saved by Thakur Depal ji Solanki and this hide out has been removed from Panarwa and the Rawala and Darikhana remains in the Adivas are still present and their descendants live in the same Rawale and this Rawla Thakur Depal Ji Solanki Has been added whose photo has been added to this article
Right now the descendants of Solanki in the tribal place
Right now the descendants of Solanki in the tribal place
12 villages are located inside the Adivas hide out
This link has been inserted for information about the history of the Panarwa where abouts, there is a mention of Thakur Depal Ji Solanki.
अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक पर click करे
http://www.indianrajputs.com/view/panarwa#menu
This Adivas Rawale is entered through the main doorway
पानरवा ठिकाना राणा पूंजा की जन्मस्थली है । राणा पूंजा एक सोलंकी क्षत्रिय थे। इसके ऊपर कई सालों पहले इतिहास का शोध करके और
पोथियो का मंथन करके एक किताब छापी गई है जिसका नाम पानरवा का सोलंकी वंश या पानरवा कै सोलंकी अगर वह बुक आपको कहीं से भी अवेलेबल होती है ।
मिल जाती है तो उसमें स्पष्टीकरण के साथ भोमट के इतिहास को दर्शाया गया है जिसमें ज्यादातर बड़वा जी की पौथियौ से ब्योरा लिया गया है और उस किताब में ठाकुर मनोहर सिंह जी तक पूरा वंश नामा सम्मत गादी नसीम सम्मत महाराणा की युद्ध मुख्य मुख्य संबंध
सब पोथियों के आधार इतिहासकारों के आधार पर वह बुक निकाली गई है गवर्नमेंट सरकार को यह बताने के लिए कि सोलंकी वंश में ही राणा पूंजा ने जन्म लिया था और पानरवा ठिकाने के वह शासक रहे ।पानरवा से ही ओगणा ठिकाना निकला है जिसके ऊपर छपी हुई किताब के कुछ अंश मैं पटल पर डाल रहा हूं
📝 देवेंद्र सिंह जी दाखिया बड़वाजी सोलंकी वंश पानरवा।
पानरवा के राणा पुंजा सोलंकी थे
मेवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार देवी लाल पालीवाल के अनुसार राणा पूंजा भील नही सोलंकी राजपूत थे मेवाड़ के पानरवा ठिकाने में आज भी उनके वंशज मौजूद हे.आदिवासी भील समाज के लोग राणापूंजा को अपना राजा मानते थे राणा पूंजा सोलंकी राजपूत वंश से थे
लेकिन आज के टाइम वोट बैंक की राजनीति के चलते महान लोगों के इतिहास का भी तहस नहस कर दिया
वर्तमान पानरवा ठाकुर साहब राणा मनोहर सिंह सोलंकी को आज भी उस गांव के आदिवासी भील समाज के लोग उन्हें अपना ठाकुर साहब व राणा मानते हैं और आदर सम्मान देते हैं लेकिन
जो इतिहास का एनकाउंटर कर रहे हैं यह तो हद ही हो गई आजकल कोई भी पोस्ट को बिना जानकारी के ऐसे कॉपी पेस्ट करते हैं जैसे वह उनके परिवार के बारे में पूरा नॉलेज रखते हैं सब कुछ जानते हैं.!
यह पुस्तकें गवर्नमेंट और कोर्ट द्वारा संशोधन होने के बाद छपी है।
बिगर जानकारी वाले लौग भील लिख कर शर्मिंदा ना करें
समस्त क्षत्रिय, सोलंकी परिवार
जो समाज अपना इतिहास
भूला देता है, इतिहास उस
समाज को भूला देता है।
पानरवा ठिकाना
इस फोटो में आदिवास के सोलंकियों व अन्य सोलंकियों के (960-995 ई.) अभी तक कि रूप रेखा है
It was a matter of time when the right to sit on the Adiwas hide out on the Panarwa hide out was a matter of dispute of the Ogna where abouts.
( 1852 - 1881 ई . ) 7 दिसम्बर , 1852 ई . के दिन पानरवा राणा प्रतापसिंह का देहावसान होने पर पानरवा में उसके उत्तराधिकारी को लेकर गृह - कलह पैदा हो गया । उसकी मृत्यु से पांच वर्ष पूर्व 1847 ई . में उसका एक मात्र पुत्र जोरावरसिंह एक झगड़े में मारा गया था । अपनी मृत्यु से पहिले प्रतापसिंह ने किसी को गोद भी नहीं लिया था । उस समय पानरवा की गद्दी के लिय दो दावेदारों ने अपना हक बताया । एक दावा ओगणा ठिकाने के परिवार की ओर से पेश किया । गया , जो शाखा राणा प्रतापसिंह से 14 पीढ़ी पहिले राणा हरपाल के दूसरे पुत्र नाहरसिंह से निकली थी । नाहरसिंह । को अपने पिता राणा हरपाल से वह ठिकाना मिला था । तत्कालीन ओगणा रावत किशनसिंह ने अपने छोटे पुत्र । भवानीसिंह को पानरवा की गद्दी पर बिठाने का प्रयास किया । स्वर्गीय राणा की ठकुरानियां और सारा जनाना भवानीसिंह के पक्ष में था , जिन्होंने यह बताया कि स्वर्गीय राणा ने अपने मृत्यु से पहिले ओगणा के भवानीसिंह को पानरवे गोद लेने की मंशा प्रकट की थी । पानरखा की गद्दी के लिये दूसरा दावा आदीवास ठिकाने के ठाकुर विजयसिंह ने अपने पुत्र बदनसिंह का पेश किया । आदीवास परिवार वाली शाखा राणा प्रतापसिंह से 8 पीढ़ी पूर्व राणा भगवानदास के तीसरे पुत्र देपाल से निकली थी । राणा भगवानदास ने देपाल को आदीवास की जागीर प्रदान की थी । उत्तराधिकार का झगड़ा और पानरवा में गृह - कलह राजपूतवंशीय राज्यों एवं ठिकानों में गोद लेने एवं उत्तराधिकारी बनाने की परम्परागत विधि के अनुसार वश की सबसे नजदीकी पीढ़ी वाले परिवार का हक बनता था । तदनुसार पानरवा की गद्दी के लिए आदीवास वालों का दावा अधिक वजनदार था । किन्तु स्वर्गीय राणा के परिवार , कामदार एवं अहलकारों द्वारा ओगणा का पक्ष लेने से । ओगणा रावत किशनसिंह ने पानरवा पहुँच कर अपने पुत्र भवानीसिंह का तिलक करवा दिया और गढ़ पर कब्जा करके अपने लोगों सहित दरीखाने में बैठ गया । उसके भील लोग धनुष - बाण लेकर सुरक्षा पर डट गये । उधार । आदीवास ठाकुर विजयसिंह भी अपने पुत्र बदनसिंह तथा अपने राजपूत बांधवों एवं भील लोगों को लेकर पानरवे में । घुस आया और झगड़ा शुरू कर दिया । इस भांति दोनों दलों में फसाद शुरू हो गया ।
ब्रिटिशा आधिपत्य में पानरवा पानरवा की ठकुरानियों द्वारा ओगणा के भवानीसिंह को उत्तराधिकारी बनाना ओगणा रावत किशनसिंह ने अपने पुत्र भवानीसिंह की गद्दीनशीनी को सुदृढ आधार प्रदान करने के लिए और । तत्सम्बन्धी रस्म को पूरी करने के लिए ईडर राव के यहां से तलवार और पगड़ी मंगवा कर भवानीसिंह को धारण करवा दिया । पानरवा में भवानीसिंह की गद्दीनशीनी का यह कार्य खैरवाड़ा स्थित अंग्रेज पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट अथवा मेवाड़ । के महाराणा को सूचना दिये बिना और मंजूरी लिये बिना कर दिया गया । 1841 ई . भील कोर स्थापित होने के साथ । ही खैरवाड़ा का अंग्रेज पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट अधिकारी भोमट इलाके का सर्वोच्च प्रशासक नियुक्त हो गया था । यह अधिकारी मेवाड़ में नियुक्त अग्रेज पोलिटिकल एजेंट का असिस्टेंट होता था और भील कोर का कमांडेंट भी होता था । तब से यह अधिकारी भोमट के भोमिया ठिकानेदारों के सम्बन्ध में महाराणा की ओर से और उसके नाम से कतिपय शासकीय अधिकारों का प्रयोग करता था , जिनमें वहा के ठिकाने में शाति - व्यवस्था देखने के अलावा ठिकाने में गोद लेने एवं उत्तराधिकारी बनाने से पहिले उसकी मंजरी ली जाती थी । ऐसी मंजरी वह अपने अधिकारी पोलिटिकल एजेंट की स्वीकृति लेकर दिया करता था और उसके बाद उसकी सूचना महाराणा को भिजवा दी जाती था और प्रायः यह मान कर चला जाता था कि उस निर्णय में महाराणा की स्वीकृति है । निश्चय ही ऐसे मौको पर । वह अंग्रेज अधिकारी सम्बन्धित ठिकाने में जाकर गद्दीनशीनी की रस्म पूरी करवाता था । किन्तु जब कभी ऐसे मामलों में विवाद एवं कलह पैदा हो जाता , तब उसको हल करने के लिए महाराणा को सीधे तौर पर उसमें शामिल करना पड़ता था । ऐसा ही पानरवा की इस विवादग्रस्त घटना के समय हुआ । दो दावेदार और अंग्रेज अधिकारियों का हस्तक्षेप भवानीसिंह का खैरवाड़ा के पोलिटिकल सुपरिटेडेंट को सूचना दिये एवं मंजूरी लिये बिना पानरवा की गद्दी पर बैठ जाना अग्रेज अधिकारी को बड़ा नागवार गुजरा । ईडर से तलवार और पगड़ी मंगवा कर इस रस्म को पूरी करने की बात से वह अधिक नाराज हुआ । तत्कालीन महाराणा सरूपसिंह को कोई जानकारी नहीं थी । जब नीमच में पोलिटिकल एजेंट कप्तान बुक को इस स्थिति की पूर्व सूचना मिली , उसने तत्काल मेवाड़ के दीवान मेहता शेरसिंह को लिखा कि महाराणा की ओर से किसी जिम्मेदार व्यक्ति को पानरवा भेज कर आदीवास से योग्य व्यक्ति को गोद । लेकर उसको पानरवा में गद्दी पर बिठाने की कार्यवाही की जावे । मेवाड़ दरबार की ओर 8 दिसम्बर , 1852 ई . को किशनमल सिंघवी को निशान आदि देकर आदीवास के दावेदार को पानरचे में गद्दी पर बिठाने की रस्म पूरी करने के लिये भेजा गया । उसके पहुंचने से पहिले ही ओगणा के दल ने पानरवे में भवानीसिंह को गद्दी पर बिठाने की रस्म पूरी कर दी थी । अंग्रेज अधिकारी और महाराणा की ओर से ओगणा वालों की इस कार्यवाही को नामंजूर कर दिया । गया । अंग्रेज पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट इसलिये भी अधिक नाराज था कि पानरवा की ठकुरानियों आदि ने ओगणा के भवानीसिंह को गोद लेने के सम्बन्ध में उसको दरखास्त भी नहीं दी थी । पानरवा पहुँच कर किशनमल सिंघवी ने । दरबार की ओर से यह घोषणा करवा दी कि पानरवे का असली हकदार आदीवास का बदनसिंह है । इस समय उक्त दोनों पक्षों के बीच फसाद बढ़ गया और दोनों पक्षों के राजपूत और भील तीरों , तलवारों , भालों और बन्दूकों । से एक दूसरे पर वार करने लगे , जिससे कई लोग मारे गये एवं घायल हो गये । । 3 . वही । 4 . 3 मार्च , 1953 ई . को खेरवाड़ा से पोलिटिकल सपरिटेंडेंट कमान डेविडसन ने भी किशनमल सिंघवी को पानरचा पत्रा भजकर लिखा कि आदीवास वाले का बेटा पानरखे की गादी पर बैठेगा इसलिये तुम उसको बिठा लेना ।
जब ओगणा रावत किमानसिंह ने अंग्रेज अधिकारी के आदेश एव महाराणा सरूपसिह के हुक्मनाम को मानने । से इनकार कर दिया और चारों ओर अशांति एवं फसाद फैलने का खतरा पदा हो गया तो पोलिटिकल सुपरिटोटका कोटडा छावनी से सूबेदार छत्ता तिवाड़ी को मेवाड़ भील पल्टन ( कार ) के सिपाहियों के साथ पानरवे से ऑगणा वालो । को निकाल कर आदीवास के बदनसिंह को विधिवत पानरवा का उत्तराधिकारी बनाने और वहां शांति स्थापित करने के लिए भेजा । इधर उदयपुर से भी महाराणा ने अपने निशान और सवार पानरवा भेजे । किशनमल सिंघवी ने भील पल्टन की मदद से ओगणा वालों को और उनके द्वारा नियुक्त मकरानी मुसलमान सिपाहियों आदि को पानरवा में निकाल दिया और 28 मार्च , 1853 ई . को विधिवत आदीवास रावत विजयसिंह के पुत्र बदनसिंह को अंग्रेज सरकार और महाराणा की ओर से पानरवे की गद्दी पर बिठा दिया और मेवाड दरबार की ओर से पाग बंधवादी । । महाराणा सरूपसिंह का हस्तक्षेप - आदीवास के बदनसिंह की गद्दीनशीली । यद्यपि इस भाति बदनसिंह पानरवे का हकदार तो बन गया किन्तु यह नाममात्र के लिये ही हुआ , चूंकि । ठकुरानियों और कामदार आदि का वह समर्थन हासिल नहीं कर सका । आंतरिक तौर पर ओगणावालों का प्रभाव । कायम रहा । उन्होंने पानरवा के खजाने से उनके द्वारा भर्ती किये गये मकरानी सैनिकों के वेतन का चकारा किया । तथा खजाना खाली कर दिया और कई प्रकार की मूल्यवान वस्तुएं गायब कर दी । बदनसिंह की कमजोर हालत । देखकर किशनमल सिंघवी स्वयं आतरिक तौर पर ओगणा - पक्ष से मिल गया । यहां तक कि ओगणा वाले मेवाड के । निशान के नीचे बैठ कर बदनसिंह के खिलाफ षडयंत्र करते रहे । उन्होंने अपनी छुट - पुट हिसक कार्यवाहियाँ भी जारी । रखी । इन परिस्थितियों में आदीवास का बदनसिंह पानरवा के पाट पर बैठ कर भी असहाय हो गया । वह अपनी स्थिति जमाने में पूरी तरह असफल हो गया । जब इन परिस्थितियों की सूचना कप्तान बुक को मिली तो वह बहुत दुखी हुआ और उसने । अप्रैल , 1853 ई . को तथा बाद में 28 अप्रेल को मेवाड़ दरबार को लिखे गये पत्रों में खुलासा । किया कि " हमारी सरकार से सलाह लेकर आपने आदीवास के बदनसिंह को पानरवे की गद्दी पर बिठा कर पगड़ी बंधवाई है । फिर भी वहां ओगणा वाले झगड़ा फसाद कर रहे हैं और उनको रोकने का कोई इंतजाम नहीं किया जा रहा है । ऐसी स्थिति में हमें दखल देने का अधिकार नहीं है । _ _ जब बदनसिंह ने देखा कि उसके हक को मारने तथा उसको असफल करके पानरवा से निकालने के लिए । किशनमल सिंघवी स्वयं ओगणा बालों से मिल गया है और उसके साथ असहयोग कर रहा है तो उसने 28 मई , 1853 ई . को कप्तान बुक को पत्र लिखकर सूचित किया कि कंपनी सरकार और दरबार दोनों ने मुझे पानरवा में । हकदार बनाया । मैंने उदयपुर दरबार को नजराना तथा खिराज के लिये रुपये देने बाबत कोल्यारी गांव के महाजनों । की जामिन दिलवाई । उस राशि को जमा कराने के लिये ) महाजन हासिल वसूल करने के लिए तहसील की परवानगी । मांग रहे हैं । उदयपुर का कामदार किशनमल सिंघवी न तो महाजनों को हासिल देता है और न उनको हासिल वसूली की परवानगी दिलाता है । उधर ओगणा वालों ने उदयपुर दरबार में 7700 रुपये देने का वचन दिया है और उनके पक्ष में उदयपुर से दो निशान भी आ गये हैं । इस प्रकार किशनमल का इरादा मुझको पातरवे से बेदखल करके ओगणावालों को गद्दी पर बिठाने और मुझे हथकड़ी लगाने का है । कृपया मेरी अर्जी बड़े साहब ( ए जी जी . ) सेंट पात्रिक लारेंस को भिजवा कर न्याय दिलवायें । ओगणा के मुकाबले आदीवास की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी और ओगणावालों ने पानरखें की । घन - सम्पत्ति भी हथिया ली थी । आदीवास का बदनसिंह एक ओर महाराणा को नजराणे एवं खिराज की राशि देने 6 . 7 . 8 .
ब्रिटिपा आधिपत्य में पानरवा 69 का वादा करके भी कुछ भी प्रबन्ध नहीं कर सका , दूसरी और वह पानरवे के राजपरिवार एवं कामदार आदि को अपने पक्ष में नहीं कर सका । वह अन्य सोलंकी ठिकानों का समर्थन भी न जटा सका । सैनिक दृष्टि से भी वह बहत । अशक्त था । जब किशनमल सिंघवी और ओगणावालों की साठगांठ हो गई तो पासा पलट गया । पानरचे से । किशनमल ने महाराणा को सूचित किया कि पानरवा के लोग बदनसिह को नहीं चाहते हैं । वे ओगणा के भवानीसिंहा के पक्ष में है । ओगणावाले नजराने की राशि एक मुश्त देने को तैयार हैं । एक मुश्त नकद राशि के प्रलोभन ने वडा असर दिखाया । उधर स्वर्गीय राणा प्रतापसिंह की माजी ने एक दरखास्त महाराणा के पास भिजवाई जिसमें लिखा गया कि : 1 . जब आदीवास का भोमिया ( ठाकुर ) भीमसिंह मरा , उस समय उसके लाऔलाद मरने से पानरवा राणा ( स्व . ) प्रतापसिंह ने विजयसिंह के बेटे बदनसिंह को उसके गोद बिठाकर आदीवास दिलवाया था , उसी बदनसिंह को पानरवे में वापस कैसे गोद लिया जा सकता है ? जब पानरवा राणा प्रतापसिंह के कुंवर जोरावरसिंह को बांसीवालों ने मारा , उसमें बदनसिंह के पिता विजयसिंह का हाथ था । 3 . कोल्यारी में मेवाड़ राज्य के थाने को काटने में विजयसिंह का हाथ था । 4 . मेवाड़ राज्य में दस्तूर है कि जागीरदार के लाऔलाद मरने पर उसके घर की ठकुरानियां और बाधव जिस व्यक्ति को गोद लेने का निर्णय करते हैं , उसको दरबार स्वीकार कर लेते हैं । ' किशनमल सिंघवी 10 ने यह दरखास्त महाराणा के पास भिजवा दी । जब आदीवास के विजयसिंह ने देखा कि उसके पुत्र से पानरवा वापस लेने की योजना चल रही है तो उसने बिरोटी और अदकाल्या गांवों में घरों को जला दिया । इस पर ओगणावालों ने ओड़ा गांव जलाने की योजना बनाई । 12 मई , 1853 ई . को कप्तान बुक ने मेवाड़ । दरबार को सूचित किया कि आदीवास के विजयसिंह ने बिरोटी में घर जलाये हैं और सुना गया है कि वह छावनी कोटड़ा और खैरवाड़ा मारने ( हमला करने ) का इरादा रखता है । अतएव उसके लिये बदोवस्त जरूरी है । 21 मई को पुनः कप्तान ग्राट ने खैरवाड़ा से पानरवा की गभीर स्थिति के सम्बन्ध में महाराणा को अवगत कराया । 9 . वही । 10 . किशनमल सिंघवी जोधपुर के शंभूमल सिंघवी का वंशज था । शंभमल सिंघवी जोधपुर के महाराजा विजयसिंह ( 1752 - 1793 ई ) द्वारा मेवाड़ के महाराणा अरिसिंह ( 1761 - 17 ई . ) की सहायतार्थ भेजी गई मारवाड़ी फौज का मुसाहिब था । महाराणा ने 3000 सैनिकों की यह फौज कुभलगढ में । काबिज उसके प्रतिद्वंद्वी रत्नसिंह के आक्रमण से स्वयं की रक्षार्थ मंगवाई थी और नाथद्वारे में रखी थी । 1772 ई . में यह मारवाड़ी फौज वापस लौट गई । शंभूमल का दूसरा पुत्र फौजमल सिंघवी नाथद्वारे में ही रह कर यहां फौजबक्षी का काम करता रहा । नाथद्वारे में लालबाग के निकट फौजमोहल्ला में फौजमल की सबसे पुरानी हवेली अब तक विद्यमान । है । फौज के वहां ठहरने से मौहल्ले का यह नाम पड़ा । फौजमल के लड़के बहादुरमल को महाराणा भीमसिंह ने भील उपद्रवों को दबाने हेतु अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि जेम्स टाड की मदद के लिए नियुक्त किया था । फौजमल का अन्य । पत्र किशनमल सिंघवी भी मेवाड राज्य की सेवा में रहा । और कई वर्षों तक पानरये में नियुक्त किये जाने से पहिले । मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्र में भोमट के ठिकानेदारों से दसूद आदि वसूल करने का काम करता रहा । वह राधोगढ़ में 1842 ई में कामदार पद पर नियक्त था । किशनमल सिंघवी के वंश में वर्तमान में सोभागमल सिंघवी है , जो नाथद्वारा म गोस्वामीजी की सेवा में कार्यरत हैं । उनके पास पानरवा और किशनमल से सम्बन्धित कतिपय प्राचीन पत्र उपलब्ध है । । उनसे प्राप्त कुछ जानकारी का यहां उपयोग किया गया है ।
70 आदेश की उसको पूरी पानरवा का सोलंकी राजवंश कोटाकर ओगणा के भवानीसिंह को पानरवा का हकदार बनाना । न में दस गह - कलह में ओगणा रावत किशनसिंह का सफलता मिल गई । वि स 1000 - 20 मई 1853 ई . को महाराणा सरूपसिंह ने नया हुक्मनामा निकाला , जिसके द्वारा रोग सा जवानीसिंह को पानरवा का हकदार बना दिया गया । 28 मई को आदीवास के बदनसिह द्वारा अधिकारी को जो दरखास्त भेजी गई , उससे यह लगता है कि महाराणा के 26 मई के नये आदेश की जानकारी नहीं थी । महाराणा द्वारा इस प्रकार अपनी पहिले का आदावास के बदनसिह को पानरवा की गई । बिठाने की कार्यवाही को रह करके ओगणा के भवानीसिंह को पानरता का हकदार बनाया गया , इससे अग्रेज अधि भारी दुविधा में पड़ गये । 12 जून , 1853 ई . को कप्तान ब्रुक ने महाराणा के इस निर्णय पर आश्चर्य प्रकट करते मेवाड दरबार को लिखा कि ' ' दरबार मालिक मुल्क हैं और अधिकार रखते हैं , लेकिन फसाद नहीं बने बन्दोवस्त आवश्यक है । आदीवास वालों को ईडर और गुजरात की ओर से मदद नहीं मिले , इसके लिये महीका छावनी और ईडर के राव को ( अंग्रेज सरकार की ओर से ) लिखा जा रहा है । जब बदनसिंह की दरखास्त और महाराणा द्वारा पानरवा का हकदार बदलने के आदेश की सूचनाएं एजीजी । कर्नल जार्ज सेंट पात्रिक लारेंस को मिली तो वह बहुत नाराज हुआ । लारेंस ने 5 जुलाई , 1853 ई . ( वि . सं . 1000 आसाढ वदी 6 ) को मेवाङ दरबार को पत्र लिखकर सूचित किया कि पानरवा वाले बदनसिह का पत्र मिलने पर । दरयाफ्त किया तो पता चला कि आदीवासनाले से नजराणा लेकर उसको पानरचे का पट्टा दिया गया था । फिर । ओगणावालों द्वारा ज्यादा नजराणा देने पर पट्टा उनको दे दिया गया । हमको नहीं मालूम कि राज ( मेवाड़ दरबार । का यह कैसा दस्तूर है । किन्तु इस बात से इलाके में फसाद होने का खतरा नजर आता है । हमारी मर्जी इस मामले में दखल देने की नहीं है । यदि इसके कारण कोई दगा - फसाद हुआ तो उसके लिए दरबार को जवाब देना पड़ेगा । ( 13 ) उदयपुर से किशनमल को तीन निशान भेजकर लिखा गया कि पानरवा में बखेड़ा मिटा देना और ओगणा वालों को जमा देना । किशनगल ने विधिवतः भवानीसिंह को गद्दी पर बिठा दिया और महाराणा की ओर से ग बंधवा दी । पानरवा के इस विवाद को अंग्रेज सरकार ने महाराणा पर छोड़ दिया , चूंकि यह विवाद स्थानीय दस्तुर और परिपाटी के अनुसार ही निपटाना था , अन्यथा भोगट में भारी अशांति का खतरा पैदा हो सकता था । इसीलिये । अंग्रेज सरकार ने स्वयं को इस उलझन से दूर रख कर वहां की शांति - व्यवस्था के लिये मेवाड़ दरबार को उत्तरदायी बना दिया । 14 अशान्ति और उपद्रव फैलना जिस प्रकार की संभावना थी , भवानीसिंह को पानरचे में हकदार बनाने के बाद इलाके में भारी अशान्ति और अव्यवस्था फैल गई । आदीवास का विजयसिंह सिरोही इलाके में जाकर भारी उत्पात करने लगा । वह पश्चिमी भान । में भीलों को उकसाने लगा और उधर के पहाड़ी मार्गों में यात्रियों एवं व्यापारियों को लूटने लगा । उसके आदमी पानरवा राणा के नाम पर पानरवे की चौकियों पर कर वसल करने लगे । दोहरे कर की मार से व्यापारा दुखा गये । मारवाड़ की और के व्यापारियों ने कोटड़ा स्थित अंग्रेज अधिकारी को शिकायत की कि खाखर गाव व की सीमांत चौकी ) में आदीवास के विजयसिंह और पानरवा के भवानीसिंह दोनों की ओर से टेक्स लिय जा
ब्रिटिश आधिपत्य में पानरबा 71 मेवाड दरबार की ओर से वहां कोई इंतजाम नहीं है । विजयसिंह द्वारा फैलाई गई इस अशांति और लुटपाट को मेवाड़ । दरबार नहीं रोक सका । महाराणा की ओर से उसको मिटाने के लिए खेरवाड़ा के अंग्रेज अधिकारियों से सैनिक । ( भीलकोर की ) मदद चाही । किन्तु खेरवाड़ा के पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट ने जवाब में लिखा - " हमारा लिखना राज के । ध्यान में नहीं आया । उसके उपरांत हमसे मदद चाहते हैं । इस मामले में हमारी ओर से एक सिपाही की भी मदद नहीं दी जावेगी और फसाद की जिम्मेदारी दरबार की होगी । " पानरवा इलाके में डकैती , लूटपाट , हिसा आर बदइंतजामी के समाचार पाकर नीमच से 10 सितंबर , 1853 ई को ए . जी . जी . लारेस ने भी मेवाड़ दरवार को उलाहना भेजा और कठोर भाषा में लिखा कि इस बदइंतजामी के लिए मेवाड़ दरबार जिम्मेदार है । दरबार के प्रधान की ओर से उत्तर नहीं दिया जा रहा है । उदयपुर से तत्काल और निशान भेजे जावें और पानरवा में पूरा इतजाम किया जावे . 15 - पानरवे की माली हालत बहुत बिगड़ चुकी थी । उत्तराधिकार के झगड़े के दौरान ओगणावालों ने पानरवे के खजाने को खाली कर दिया था । उनके द्वारा भर्ती किये गये मकरानी सिपाहियों का वेतन पानरवे के खजाने से दिया गया ! खजाने के जेवर आदि मूल्यवान वस्तुओं तथा अन्य साधनों की भरपूर लूटपाट हुई । पानरचे की इस बदहाली का पता राणा भवानीसिंह द्वारा कप्तान ब्रुक को 12 मई , 1856 ई . को लिखे गये पत्र से चलता है । भवानीसिंह ने लिखा कि खजाने में पैसा नहीं है । 150 सिपाहियों को वेतन के 12000 रुपये देने हैं । पानरबा के राणा ( स्वयं ) की हालत इतनी बुरी है कि वह स्वंय बारोटिया हो जावे तो आश्चर्य नहीं । उसने प्रस्ताव किया कि अभी पानरवे ठिकाने का इंतजाम खालसे ( मेवाड़ दरबार के इंतजाम ) में रखा जावे । पानरवा राणा ( स्वयं भवानीसिंह ) फिलहाल ओगणा जाकर रहे । जब ( राज्य के इंतजाम से ) पानरवे की हालत में सुधार हो जाय तब वह पानरवा लौट आवे । " राणा भवानीसिंह के उक्त पत्र के बारे में मेवाड़ दरबार की ओर से मेहता शेरसिंह ने कत्तान ब्रुक को लिखा " महाराणा ने फरमाया है कि साहब ( कप्तान ब्रुक ) को ठिकाने के असली हालात का पता नहीं है । पानरवा से मेवाड़ दरबार को अभी तक बीस - पचीस हजार रुपये नजारणे , नालिश आदि के लेने बाकी है , जिसकी अदायगी की कोई सूरत नहीं है । दरबार ने पानरवा राणा को सिपाहियों की तनखा चुकाने के लिए आठ हजार रुपये साहूकार से जमानत पर दिलवाये हैं । पानरवा को खालसे के इतजाम में लेने की शर्त महाराणा को मंजूर नहीं है । पानरवे में आमदनी कम और खर्चा ज्यादा हो रहा है । साहब ( ब्रुक ) पानरवा राणा को समझावे और यह भी कहे कि वह धमकी आदि नहीं । देवे । . 16 1857 ई . का विद्रोह और भोमट _ _ 10 मई , 1857 ई . को भारत की ब्रिटिश कंपनी सरकार के खिलाफ सरकारी सेना के देशी सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया , जिसमें धीरे - धीरे देश के अन्य सैनिक , राजा , जमींदार आदि भी शरीक हो गये । मेवाड़ राज्य में भी विद्रोही सेनापति तात्या टोपे के नेतृत्व में विद्रोही सैनिक घुस आये । मेवाड़ के कोठारिया , सलूंबर , भींडर आदि कई जागीरदारों ने उनकी प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष सहायता की । मेवाड़ के महाराणा सरूपसिंह ने इस अवसर पर विद्रोहियों को दबाने के कार्य में अंग्रेज सरकार को सैनिक सहायता प्रदान की । उसने बेदला राव बख्तसिंह की अध्यक्षता में अपनी सेना पोलिटिकल एजेंट कप्तान शावर्स के साथ नीमच भेजी । भोमट ' का दुर्गम पहाड़ी भाग विद्रोही कार्यवाहियों से अछूता रहा । किन्तु उस संकट - काल में भोमट क्षेत्र के ठिकानेदारों और भीलों को शांत रखने और उन पर देशव्यापी विद्रोह का प्रभाव नहीं होने देने के लिए अंग्रेज सरकार ने आवश्यक कदम उठाये । उसको डर था कि चारों ओर की अशांति
72 पानरवा का सोलंकी राजवंश का लाभ उठा कर ये लोग लूटमार की कार्यवाहियों में संलग्न हो सकते हैं । उस समय खैरवाड़े में ब्रिटिश सेना की । प्रथम बंगाल घुड़सवार सेना की एक टुकड़ी तैनात थी । 3 जून , 1857 ई . को उस घुड़सवार सेना ने नीमच में विद्रोह । कर दिया था । अतएव खैरवाड़े में तैनात घुड़सवार सैन्य टुकड़ी के विद्रोह की आशंका देखकर वहां के अंग्रेज । पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट कप्तान ब्रुक ने उस टुकड़ी के रिसालदार का सबके सन्मुख सिर कटवा दिया । तथा मेवाड़ भीलकोर पल्टन की मदद लेकर उस सैन्य दल को घेर कर निःशस्त्र कर बन्दी बना लिया गया । आदीवास का विजयसिंह अभी तक पश्चिमी भोमट में सिरोही की ओर से उपद्रवी कार्यवाही कर रहा था । अतएव सम्पूर्ण भोमट की शांति - व्यवस्था का कार्य अंग्रेज सरकार ने पुनः सीधा अपने हाथों में ले लिया । इस संकट में ब्रिटिश सरकार के कहने पर महाराणा सरूपसिंह ने भोमट के भोमिया ठिकानेदारों को विशेष फर्मान भेजकर आदेश दिया कि वे अपने अपने ठिकानों की चौकियों की सुरक्षा का प्रबंध करें और अंग्रेज अधिकारियों की मदद करें । खैरवाड़ा एवं कोटड़ा के अंग्रेज अधिकारियों ने बहां की भील पल्टनों के सिपाहियों का उपयोग करते हुए शांति कायम रखने के लिए सख्त कदम उठाये । इससे विजयसिंह का उत्पात शांत हुआ और पानरवे में भी शांति - व्यवस्था कायम करने में मदद मिली । 17 भारतीय विद्रोह शांत होने के बाद मेवाड़ के महाराणा शंभुसिंह के काल ( 1861 - 1874 ई . ) में अंग्रेज सरकार के प्रयास से मेवाड़ में नवीन प्रशासनिक सुधारों का सूत्रपात हुआ , जो क्रम आगे चलता रहा । किन्तु अंग्रेज सरकार ने भोमट इलाके में इस दृष्टि से कोई रुचि नहीं दिखाई और पानरवा ठिकाने की व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ । राणा भवानीसिंह की नवंबर , 1881 ई . में मृत्यु हो गई । उसके दो पुत्र हुए 1 . अर्जुनसिंह , जो भवानीसिंह का उत्तराधिकारी हुआ । 2 . लालसिंह , जिसको ढाला गांव जागीर में मिला ।
ये लेख डॉ देवीलाल पालीवाल पानरवा का सोलंकी राजवंश पुस्तक से लिया गया है
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