पानरवा के सोलंकी व भोमट के अन्य ठिकाने

#पानरवा के सोलंकी व भोमट के अन्य ठिकाने -----------<<<>>>-------- भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग से होने वाले विदेशी जातियों के अनवरत आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी , मध्य एवं पश्चिमी भागों की शासक राजपूत जातियाँ अपने मूल स्थानों से निकल कर अपने लिये नये स्थान ढूढ़ने लगी । इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप कतिपय राजपूतवंशी भोमट के इस घने दुर्गम पहाडी भाग में आये और धीरे - धीरे सम्पूर्ण इलाके को आपस में बांट लिया । आदिम सामाजिक व्यवस्था पर आधारित भील कबीलों को अधीन करने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं हुई । प्रारंभ में यदुवंशियों ने दक्षिण की ओर से इस इलाके में प्रवेश किया और वाकल नदी के किनारे पर स्थित पानरवा वाले अत्यन्त दुर्गम बनीय पहाडी भाग पर अपना वर्चस्व स्थापित किया उसके बाद दो चौहान खीची एवं सोनगरा राजपूतवंशी शाखाओं ने अलग - अलग समय में प्रवेश करके जवास एवं पहाड़ा तथा जूडा क्षेत्रों पर आना अधिकार जमा लिया । उनके बाद सिरोही की ओर से सोलकी राजपूतवंशियों ने इस इलाके में प्रवेश करके यदुवंशियों से पानरवा इलाका छीन लिया और उत्तर में ओगणा तक एवं पश्चिम में उमरिया तक अपना विस्तार किया । ये घटनाएं बारहवीं से चौदहवीं शताब्दियों के मध्य हुई । उसके बाद सिसोदियों की सारंगदेवोत शाखा ने मादड़ी एवं पंवारों ने पाटिया में अपना अधिकार जमाया । लोगों में अपनी भूमि अथवा क्षेत्र - विस्तार को लेकर आपस में लड़ाई नहीं हुई । ये राजपूतवंशी ठिकानेदार भी स्वतत्र राज्यों की भांति बने रहे । मेवाड , मारवाड , गुजरात आदि की ओर से भोमट पर प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयास नहीं किये गये । अवश्य ही मेवाड के सिसोदियावंशी राजाओं के साथ उनके भावनात्मक सम्बन्ध रहे और लगभग समानता के आधार पर वे संकट काल में मेवाड़ के शासकों को सहयोग देते रहे ! किन्तु अंग्रेज सरकार द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करने से पहले वे मेवाड़ के महाराणा के अधीन जागीरदार नहीं रहे और वे स्वतंत्र ठिकानेदार बने रहे । राजपूताने के राजपूत राज्यों से सम्बंधित ऐतिहासिक शोध - खोज और लेखन का सर्वप्रथम प्रयास तत्कालीन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के राजनैतिक अधिकारी जेम्स टॉड ने किया । उसने अपनी पुस्तक Annals and antiquities of Rajasthan में मेवाड़ राज्य का विस्तृत वर्णन किया , किन्तु भोमट क्षेत्र के सम्बन्ध में भी नहीं लिखा । किन्तु अपनी दूसरी पुस्तक Travels in Western India में इस क्षेत्र के सम्बन्ध में संक्षिप्त जिक्र किया है । लेखक की जानकारी बड़ी अस्पष्ट एवं भ्रमपूर्ण भी है किन्तु उसने पानरवा के अधिपति एवं वहां के लोगों के सम्बंध में बड़ा रोचक वर्णन किया है ।। किन्तु टॉड के बाद राजपूताने के इतिहास के सम्बन्ध में लगभग साठ वर्षों तक अनुसधान एवं लेखन का कार्य नहीं किया गया । आदिवासी समुदाय के असंतोष एवं अशांति से निपटने वाले उदयपुर एवं खैरवाड़ा स्थित अंग्रेज अधिकारियों ने अपने पत्र व्यवहार में भील समुदाय पर शासन करने वाले भोमट के राजपूत ठिकानेदारों के सम्बन्ध में सूचनाएं दीं । उस काल के कतिपय अंग्रेज अधिकारियों , कर्नल जे सी . ब्रूक , कर्नल सी के एम . वाल्टर और कर्नल ए एफ . पिन्हे ने अपने मेवाड़ राज्य के इतिहास से सम्बन्धित अपनी पुस्तकों में भोमट के इन ठिकानेदारों के सम्बन्ध में थोड़ा बहुत लिखा । उनमें सबसे अधिक उपयोगी पुस्तक सी.एस. बैले ने Ruling Princes , Chiefs and Leading Personages in Rajputana लिखी जिसमें भोमट के ठिकानेदारों से सम्बंधित ऐतिहासिक जानकारी प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास किया । उसने जवास , जूडा , पहाड़ा , पानरवा , ओगणा , मादड़ी आदि ठिकानों के भोमट में स्थापित होने के समय से लेकर उनके अतिम तत्कालीन ठिकानेदारों तक का अत्यंत संक्षिप्त वृत्तान्त दिया है । उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षो में अंग्रेज सरकार ने राजपूताने के विभिन्न राज्यों के जागीरदारों के इतिहास और अधिकारों एवं दायित्वों के सम्बन्ध में सर्वेक्षण करवाया था । उसी के आधार पर 1885 ई . के लगभग इस पुस्तक का प्रथम संस्करण निकला था । उसका सातवां संस्करण 1937 ई . में प्रकाशित हुआ , जिसमें बाद की अतिरिक्त सूचनाएं शामिल की गई । किन्तु आश्चर्य की बात है कि किसी अन्य इतिहासकार ने बैले की सूचनाओं का उपयोग नहीं किया और न तत्सम्बन्धी शोध को आगे बढाया । वीरविनोद इतिहास ग्रंथ के लेखक कवि राजा श्यामलदास ने भी इस प्रकार की सामग्री एकत्र की थी किन्तु उसने भोमट के ठिकानेदारों के सम्बन्ध में नहीं लिखा । श्यामलदास ने केवल पानरवे वालों का जिक्र करते हुए यही लिखा कि वे स्वयं को गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के वंशज बताते हैं और कहते है कि उनके पूर्वज सात भाई अखयराज आदि लोहियाना छोड़कर पहाड़ों में चले आये थे । वैले की पुस्तक का उपयोग सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में नहीं किया । । उसके बाद के शोधकों एवं लेखकों का भोमट के इतिहास की ओर ध्यान नहीं गया । अवश्य ही जगदीश सिंह गहलोत ने अपने ग्रंथ राजपूताने का इतिहास में बैले की पुस्तक के तत्सम्बन्धी अंश को हिन्दी भाषा में उद्धृत किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेवाड़ के कई सरदारों में भोमट व इन राजपूतवंशी ठिकानेदारों के प्रति अकारण ही पूर्वाग्रह एव द्वेष भावना बनी रही । एक दुरभिसंधि भी चलती रही । उसके दबाव के कारण भी कई इतिहास लेखकों ने मेवाड़ के परिवारों के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा । कम - ज्यादा यह प्रवृत्ति आज तक भी देखने को मिलती है , जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1930 ई में महाराणा भूपालसिंह ने भोमट के इन ठिकानेदारों को अपने राज्य दरबार में राजपूत जागीरदारों की भांति शामिल करके उनको मेवाड़ के बड़े उमरावों के बराबर अपने - अपने ठिकानों के दीवानी एवं फौजदारी अधिकार प्रदान किये थे । बैले ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि 1478 ई . में सोलंकी अक्षयराज अपने छ : भाईयों के साथ पानरवा आया और यदु राजपूत जीवराज को मार कर पानरवा पर अधिकार कर लिया । उसने यह भी लिखा है कि अक्षयराज से चौथी पीढी में रावत हरपाल को मेवाड़ के उदयसिंह ने मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उसको ' राणा ' का खिताब दिया था । उसके पश्चात उसके उत्तराधिकारी ' राणा ' पदवी से सम्बोधित किये गये । यही वर्णन उदयपुर स्थित पुराभिलेखागार की पत्रावली में मिलता है , जिसमें रावत अक्षयराज से लेकर राणा मोहब्बतसिंह तक की पीढियावली दी गई है । इस प्रकार भोमट के सोलंकी , चौहान और सारंगदेवोत ठिकानों का इतिहास अंधकारमय रहा । उसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि भोमट का दुर्गम पहाड़ी एवं घना वनीय भाग सदैव अलग - थलग बना रहा और वह भारत एवं मेवाड़ के इतिहास में होने वाली घटनाओं से अप्रभावित एवं अज्ञात बना रहा । मेवाड़ के शासकों तथा राजपूताने , गुजरात आदि के शासकों ने इस दुर्गम एवं जोखम भरे इलाके की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया । केवल मुगल साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई के दौरान मेवाड़ के महाराणाओं ने इस भूभाग में आकर शरण ली । उस समय अवश्य उन्होंने इन लोगों की सेवा और सहायता ली । संधि हो जाने और मेवाड़ राज्य की राजधानी उदयपुर हो जाने के बाद पुनः भोमट के निवासियों का मेवाड़ की राजधानी से सम्पर्क टूट गया । पानरवे के सोलंकी वंश के प्रारम्भिक इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी का प्रमुख स्रोत टोंक- टोड़ा इलाके के दायक्या गांव के बड़वा ओंकार की सोलंकियों की नस्लनामा पोथी रही है । और उसमें बाद की वंशावली और प्रधान घटनाओं का उल्लेख भी है। पोथी में राणा हरपाल द्वारा महाराणा प्रतापसिंह की मदद करने का उल्लेख है । उसमें पानरवा के राणा प्रतापसिंह ( मृत्यु 1852 ई . ) तक का वर्णन है । उसमें प्रारम्भ से रावत अक्षयराज से लेकर बाद के पानरवे के सभी उत्तराधिकारियों के गद्दीनशीन होने और उनकी मृत्यु होने सम्बन्धी विक्रमी संवत् के वर्ष दिये गये हैं , उनमें प्रारम्भ के शासकों से सम्बधित संवत् है । ओंकार बड़वा द्वारा दी गई वंशावली पूरी तरह बैले द्वारा दी गई वंशावली के अनुसार है । बड़वा ओंकार के नस्लनामा में पानरवा के प्रधान ठिकाने से उसके शासकों ने समय - समय पर जो गांव अपने छोटे पुत्रों को जागीर में दिये , तत्सम्बन्धी वृत्तान्त भी मिलता है । सीतामऊ के बड़वा नंदराम की वंशावली पोथी में अक्षयराज से लेकर राणा रघुनाथसिंह ( मृत्यु 1765 ई . ) तक की वंशावली दी गई है , एवम् उसमें पानरवा से निकले अलग - अलग ठिकानों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है । पानरवे से निकले उमरिया ठिकाने की सूरतसिंह से लगाकर चतरसिंह तक की नामावली दी गई है । बड़वा रामसिंह की वंशावली पोथी में रावत अक्षयराज से लेकर राणा नाथूसिंह तक की वंशावली तथा उनके पुत्रों की जानकारी दी गई है , साथ में प्रत्येक शासक के पाट पर बैठने एवं उसकी मृत्यु होने के संवत् दिये गये हैं । पोथी में पानरवे के शासकों एवं उनके पुत्रों के किन - किन राजपूत परिवारों में विवाह हुए , तत्सम्बन्धी जानकारी दी गई है । बीकानेर अभिलेखागार में उपलब्ध बड़वा देवीदान की सोलकियों का कुर्सीनामा पोथी में पानरवा के सोलंकी शासन के संस्थापक अक्षयराज की सोलकी वश - शाखा से सम्बन्धित बड़ी उपयोगी जानकारी मिलती है । इससे यह प्रमाणित होता है कि पानरवा की सोलकी - वंश - शाखा गुजरात में सोलंकी - वंश के शासन के संस्थापक मूलराज और उसके सुप्रसिद्ध वंशधर सिद्धराज जयसिंह के सोलंकी वंश से निकली है । बड़वा देवीदान की सोलंकियों का कुर्सीनामा बही गुजरात के सोलकी राजवंश से निकली विभिन्न वंश शाखाओं के सम्बन्ध में ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है यद्यपि इतिहासकार गौ ही . ओझा ने पानरवा की सोलंकी वंश - शाखा और अक्षयराज के सम्बन्ध में कुछ भी जिक्र नहीं किया है , किन्तु उन्होंने अपने ग्रंथ ' उदयपुर राज्य के इतिहास ' में रूपनगर ठिकाने के सम्बन्ध में जो वर्णन दिया है उसमें उन्होंने सोलंकी राजा भोज के पुत्र पाता के पौत्र रायमल का महाराणा रायमल के समयकाल में मेवाड़ आना लिखा है । उनका यह वर्णन बड़वा देवीदान के कुर्सीनामा के वर्णन के अनुसार है । इसी कुर्सीनामा में सोलंकी राजा भोज के अन्य पुत्र गौड़ा ( गोदा ) के पौत्र अक्षयराज का पानरवा पर अधिकार करना लिखा है ओझा जी के अन्य ग्रंथ ' सिरोही राज्य के इतिहास ' में किये गये वर्णन से उन लड़ाईयों की पुष्टि होती है जो सिरोही के निकट स्थित लास गांव में सिरोही के देवड़ा चौहानों और सोलंकियों के बीच हुई । ओझाजी का अन्य ग्रंथ ' सोलंकियों का प्राचीन इतिहास ' ग्रंथ पानरवा सोलकियों के पूर्वजों पर अच्छा प्रकाश डालता है । इस विषय में मुंहणोत नैणसी और कर्नल जेम्स टाड़ के ग्रंथों से भी उपयोगी जानकारी मिलती है । राजस्थान राज्य अभिलेखागार के उदयपुर संग्रह में भोमट सम्बन्धी पत्रावलियों में पानरवा के सोलंकी वंश और प्रधानतः उसके आधुनिक इतिहास से सम्बन्धित कुछ उपयोगी सामग्री उपलब्ध हुई है । उनमें भोमट के अन्य ठिकानों से सम्बन्धित इतिहासोपयोगी सामग्री भी उपलब्ध है । यह भी सम्भव है कि उन्नीसवीं शती के अंत में जब वीरविनोद लिखा जा रहा था और प्रधानता जब ब्रिटिश सरकार ने राजपूताने की जागीरों की इतिहासविषयक जानकारी प्राप्त करने हेतु उनके यहां से महत्वपूर्ण सामग्री एकत्र की उस समय पानरवे ठिकाने से उनके प्राचीन इतिहास से सम्बन्धित सामग्री मंगवाली हो । सीएस बैले ने राजपूताने के राजाओं , सर्दारों एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों के सम्बन्ध में जो ग्रंथ तैयार किया था वह सभी ठिकानों से इस प्रकार प्राप्त की गई सामग्री पर आधारित था । बैले ने अक्षयराज द्वारा पानरवे पर अधिकार करने का जो निश्चित वर्ष 1478 ई . दिया है , तथा बाद की कुछ घटनाओं के जो वर्ष दिये हैं , वे पानरवे से प्राप्त किये गये पुराने रेकार्ड पर ही आधारित होने चाहिए। प्रथम अध्याय में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पानरवा के सोलकी वंश का गुजरात के राजवंश की एक शाखा के रूप में निकास बताया गया है । दूसरे अध्याय में मेवाड़ के पश्चिमी पहाड़ों , प्रधानतः भोमट की पर्वत श्रृंखलाओं एवं नदियों आदि से सम्बन्धित उपयोगी विवरण दिया गया है । सम्भवतः इस प्रकार का यह प्रथम प्रयास है । तीसरे अध्याय में भोमट के ठिकानेदारों की विशिष्ट स्वतंत्र स्थिति , मेवाड दरबार के साथ उनके सम्बन्धी के स्वरूप , ब्रिटिश आधिपत्य की स्थापना के बाद उनकी स्थिति में परिवर्तन तथा अंत में 1930 ई . में उनको मेवाड़ दरबार में कुछ शर्तों के साथ जागीरदार के रूप में सम्मिलित करने , आदि बातों के सम्बन्ध में स्पष्ट विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । इससे ब्रिटिश साम्राज्यी सरकार की भोमट क्षेत्र पर अपना सीधा प्रभुत्त्व स्थापित करने और भोमट के ठिकानों के आंतरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप करने की कूटनीतिक चालों पर प्रकाश पड़ता है । अंग्रेज अधिकारियों ने भीलकोर पल्टन कायम करके भील सैनिकों का भील समुदाय के ही आंदोलन को दबाने हेतु उपयोग किया । 1857 ई . के भारतीय जन - विद्रोह के समय खेरवाड़ा में तैनात ब्रिटिश सेना के देशी घुड़सवार सैन्य दल के आशंकित विद्रोह को दबाने हेतु उसके रिसालदार को मारने तथा सैनिकों को बंदी बनाने में मेवाड़ भीलकोर पल्टन का उपयोग किया गया था । अंग्रेज सरकार किस प्रकार मेवाड़ राज्य पर अपना प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखती थी , इस पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । चौथे अध्याय में पानरवा के सोलंकी शासन की स्थापना और विस्तार को रेखांकित किया गया है । पांचवा अध्याय पुस्तक का महत्वपूर्ण भाग है , जिसमें पानरवा के सोलकी अधिपति राणा हरपाल , राणा पूंजा , राणा राम और राणा चन्द्रभाण द्वारा मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह , महाराणा प्रतापसिंह , महाराणा अमरसिंह और महाराणा राजसिंह को उनके मुगल - दासता के विरुद्ध संघर्ष में दिया गया अनुपम योगदान उजागर हुआ है । सोलंकी शासकों की पाँच पीढियों का मेवाड़ के पर्वतीय भाग में लड़ी गई छापामार लड़ाईयों में मुगल सेना को पराजित करने में बड़ा योगदान रहा । पुस्तक में पानरवा की प्रशासनिक स्थिति तथा उन्नीसवीं शती में घटित भील विद्रोहों तथा बीसवीं शती के प्रारम्भ में हुए भील जन - आन्दोलन पर प्रकाश डाला गया है । साथ ही यह दर्शाया गया है कि किस भांति 1930 ई . में पानरवा एवं भोमट के अन्य राजपूत ठिकानेदार पूर्णरूपेण मेवाड़ राज्य के उमरावों की भांति मेवाड़ दरबार में शामिल किये गये थे । #संदर्भ : नस्लनामा बढडवाजी की वंशावलियां 1 . सोलकियों का कुर्सीनामा 2 . सोलंकियों का नस्लनामा बड़वा देवीदान ( गांव दायक्या राजस्थान अभिलेखागार इलाका टोंक ) की पोथी बीकानेर में उपलब्ध बड़वा ओंकार ( गाव दायक्या पानरवा ठिकाने में उपलब्ध इलाका टोक ) की पोथी बड़वा नंदराम ( गांव सीतामऊ ) पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी बड़वा रामसिंह वल्द ईसकदान पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी 3 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली 4 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली पत्रावली सं . 10 पत्रावली सं . 171 पत्रावली सं . 315 2 . ख्यात गोगुंदा की ख्यात - स . डॉ . हुकमसिंह भाटी ( 1997 ई . में प्रकाशित ) 3 . अभिलेखागार एवं संग्रहालय 1 . राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान , उदयपुर भोमट का हाल , ग्रंथ सं 2680 2 . राजस्थान राज्य अभिलेखागार ( श्यामलदास - संग्रह ) , बीकानेर बड़वा देवीदान का सोलकियों का कुर्सीनामा पूजाजी का पीढ़ीनामा Report on the hilly tracts of Mewar 3 . Akbarnama by Abul Fazl ( translation by H . Beveridge ) Akbar by A . L . Srivastava , वीरविनोद , ले . कविराज श्यामलदास , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , उदयपुर , पत्रावली , भोमट , सं . राव पंजाजी का पीढीनामा - राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर , श्यामलदास - संग्रह ,भोमट का हाल , राज प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान , उदयपुर ग्रंथ सं . VII राजपूताने का इतिहास , ले जगदीशसिंह 1 . मेवाड़ के दरीखाने की रीति रिवाज ले . डा . राजेन्द्रनाथ पुरोहित ठिकाने के प्राचीन दस्तावेज . 2 . जगदीशसिंह गहलोत कृत राजस्थान का इतिहास , भाग 2 , पृ . 341-42 गौ.ही. ओझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास , पृ . 913-916 4 . 2/7 3. 6 . डॉ . दशरथ शर्मा कृत पंवार वंश दर्पण । । 3/7 1.चाहुवान कल्पद्रुम और नानजी पुरुषोत्तम 32 . Survey of Kheechi Chauhan History , P. 175 33 . Mewar and the British , by Dr. Devilal Paliwal . P. 228-229 Ruling Princies , Leading Chiefs in Rajputans by Bayley , P. 175-176 Survey of Kheechi Chauhan History , P. 174 3/6 II

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